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क्या होगा जब खेत खलिहान न होंगे -1
एक विचार -एक कविता के साथ
इस बार बसंत इतना चुपके से आया और चला गया कि फागुन के बसंती मनभावन रंगों में कुछ पल खो कर, इस ऋतू में सरसों के खेत के पास जाकर उन पीले फूलों को स्पर्श करने का उतना समय नहीं मिल सका जितना की मन चाह रहा था पर जो कुछ पल मिले और जो कुछ भी विचार मेरे मन में आये वो आप सभी के सामने रख रहा हूँ. इस ऋतू में आप में से बहुतों ने कुछ ऐसा ही अहसास किया होगा? अपना अनुभव भी आप सब रखियेगा.
सरसों के खेतों के पास से जब मैं बिना अधिक रुके आगे जाने लगा तभी अचानक, मैं सोचने लगा कि जब विकास के नए नगरों, और उद्योगों को बनाने और लगाने में हमारे ये बचे हुऐ बहुत से खेत और खलिहान बलिदान हो जाएंगे; जब एक शहर से दुसरे सहर में रेल या बस से जाने में अगर कुछ दिखेगा तो शायद -सीमेंट कि बनी इमारतें, दुकानें , कूड़े के ढेर और प्लास्टिक के गंदे पुराने लिफ़ाफ़े या कबाड़ियों के द्वारा सड़क किनारे रख्खे गये गंदे बड़े बड़े ढेर. तब कैसे हम अपनी आने वाली पीढ़ी को, बसंत के उत्सव और बसंत की बयार में बहने और गीत गाने का क्या करण होता है – ये कभी क्या इतनी आसानी से समझा सकेंगे?
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ये सोच कर मन दुखी हो उठा, कि धीरे धीरे हम अपनी असली पुरानी सभी विरासतों को बदलाव कि तेजी में ऐसे खोते जा रहें हैं, कि आनेवाली पीढ़ी शायद बहुत मुश्किल से ये समझ पाएगी कि फागुन के महीने के बसंती रंगों और बहती मंद बयार संग सरसों के खेत में जाकर, आनंद से भर कुछ गा उठने और गुनगुनाने का हमारे मन और आत्मा से कितना गहरा सम्बन्ध होता है.
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अपने मन में उठ रहे, इन्हीं भावों और विचारों को मैंने अपनी इस नई कविता की लाइनों में पिरोने का प्रयत्न किया है, जिसका एक छोटा भाग मैं आज यहां दे रहा हूँ और शेष भाग की कविता अगले एक या दो भागों में जागरण के मंच पर शीघ्र रखने का प्रयत्न करूंगा.
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भारत के आने वाले भविश्व के लिए, अभी लिए जाने वाले कुछ अति महत्वपूर्ण निर्णय – आने वाले या बनने वाले भारत की वो रूप रेखा होंगे, जो आसानी से फिर बदले ना जा सकेंगे.
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भारत का सबसे प्रमुख महत्वपूर्ण हिंदी दैनिक पत्र होने के नाते जागरण को इस ज्वलन्तं समस्या पर पुरे देश और दूर दराज के गाँव के लोगों से और विशेस रूप से हमारे नौजवानों के सामने रख, उनकी राय से भारत सरकार अवगत कराने का प्रयत्न करना चाहिए, ऐसा मेरे अनुरोध और सुझाव है.
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बसंत की कविता
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सोच रहा था, देख धारा को,
कैसे करूं, इस ऋतू का वर्णन,
महक रहीं हैं, सभी दिशाएँ,
देख बसंत का यह नौयौवन,
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कलियाँ थीं प्रस्फुटित हो रहीं,
पा नव किरणों का मनुहार,
भौरे थे की देख ये उत्सव,
मंडरा कर आ जाते हर बार,
धरती पर लहराते, गाते,
नृत्य मग्न थे,
सरसों के सभी पुष्प और पात.
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देख जिन्हें, यूं झूमता गाता,
नन्हीं प्यारी, चिड़यों ने भी,
लगाए पुष्पों पर, फेरे, कई बार,
तितलियाँ देख, ये अनुपम दृष्य,
अपने – अपने प्रेम गीत से,
लगीं रिझाने, तभी, फूलों को,
मानों पूरी ऋतू हो गई हो,
कुछ व्याकुल कुछ उन्मादित सी,
निहार बसंत का, यह नूतन परिवेश.
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मादकता ने सराबोर हो, धरती को तब,
रंग डाला, कुछ बासंती, कुछ धानी से,
फागुन के कुछ पीले रंगों में,
दूर तलक फैले, वो सुन्दर सरसों के फूल,
आलिंगन पा, अपने – अपने साथी का,
लगे बिखेरने, खिले खिले से वो सब की सब,
अपनी वो मुक्त, मनोहारी, मधुर मुस्कान.
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लगा मुझे, तब, उस पल में यूं,
मानों खेल रहे हों, वो सब,
नन्हें बच्चों जैसे, अपने साथियों संग
कील-कील काटें, वाला खेल.
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और खड़ा मैं, कुछ ही दूर पे,
सोच रहा था, कहाँ समेटूं,
नव बसंत के ये पल अनमोल.
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रवीन्द्र के कपूर
कानपूर १७.०२. २०१५
ये कविता का मुख्य अंश बसंत पंचमी
के दिन ही लिखा गये था.
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शेष अगले भाग में
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